Sunday, November 11, 2012

कब लौटेंगे वो पुराने दिन


दीपावली त्योहार है खुशियों का, रंगीनियों का, फूलझरियों का और लजीज मिठाइयों का
दीपावली मनायी जाती है श्रद्धा से, दिल से, खुशी से, प्यार से और सादगी से
दीपावली प्रतीक है वर्षो से चली आ रही हमारी परंपरा का जिसे हम आज भी उसी उत्साह से मनाते हैं...जो लोग अपने परिवार से दूर हैं...वे भी इन खुशियों हिस्सा बनते हैं...हिस्सा बनना चाहते हैं..कई बार नहीं बन पाते हैं...
आज इस बात को स्वीकार करने में हमें किसी भी तरह का संकोच नहीं होना चाहिए कि दीवावली के रंग को फीका करने की पुरजोर कोशिश की जाती है...चाहे वो मिठाईयों में मिलावट हो, विस्फोटक पटाखें हो, या फिर बिजली से चलने वाली रंग-बिरंगी लड़ियां...ये कुछ चीजें हैं...दीवाली के पारंपरिक उत्सव में खलल डालते हैं...
मुझे आज भी याद है जब दीपावली के दिनों में कैसे घर और उसके आसपास सफाई की जाती थी...कैसे लोग महीने भर पहले ही सफाई के काम में लग जाते थे...कुम्हार भी दीये और तरह-तरह के मिट्टी के बर्तन बनाने मे लग जाते थे...क्योंकि दीवाली के मौके पर ऐसे बर्तनों और दीये की मांग बढ़ जाती थी...लेकिन क्या आज भी हमारे गांवो में वर्षो पुरानी परंपरा जीवित है...शायद नहीं, क्योंकि आज वैसा करना आउट ऑफ फैशन समझा जाता है...तभी तो हम दीवाली में मिट्टी के दीये जलाने से कतराते हैं...अगर याद कर सकते हैं तो उन दिनों के एक बार याद कीजिए...जब शाम होते ही ही मिट्टी के दीये में करु यानी सरसो का तेल डालने का काम शुरु हो जाता था..घर में दादी, मां, दीदी रुई की बाती बनाने में लग जाती थीं...और एक थाल में रखकर छोटे-छोटे बच्चे दीये सजाने में लग जाते थे...तब लोग घर से अलावा खेत-खलीहान में भी दीये जलाते थे...लेकिन वक्त के साथ मिट्टी के दीये जलाने की प्रथा पीछे छुटती जा रही है...जिसे हमें आगे आकर बचाना चाहिए..और हम ऐसा कर सकते हैं...तो शुरुआत आज से ही क्यों नहीं ?