Thursday, November 25, 2010
काम को सलाम....
Friday, October 15, 2010
दिल्ली तैयार है....
Saturday, October 9, 2010
मेरा मकसद गलत है क्या ?
एक सवाल मन को परेशान करता है...उस सवाल का यूं परेशान करना जायज भी है....क्योंकि जिंदगी खा पी कर चले जाने का नाम नहीं है....इसका एक मकसद होता है...ये मकसद सभी के लिए अलग अलग होता है...कभी कभी दो लोगों का मकसद एक हो सकता है....ये मकसद छोटा और बड़ा भी होता है....किसी का मकसद देश का प्रधानमंत्री बनने का तो किसी का दुनिया का सबसे ज्यादा पैसे वाला आदमी बनने का हो सकता है....ये उसकी क्षमता और महत्वकांक्षा पर निर्भर करता है...अगर सिकंदर की महत्वकांक्षा पूरी दुनिया पर राज करने की थी....तो ये उसकी क्षमता और उसका विजन था....उसी तरह अगर किसी का मकसद अपने बेटे को पढ़ा-लिखा कर डॉक्टर बनाने की है तो बहुत बड़ा हाथ उसकी क्षमता और महत्वकांक्षा का है.....अब यहां एक सवाल उठता है कि कौन नहीं चाहता कि उसके पास ढ़ेर सारा पैसा हो....कौन नहीं चाहेगा कि उसके बच्चे दुनिया के सबसे अच्छे संस्थान से पढ़ाई करे...लेकिन ये उसका सपना होता है...ये उसकी इच्छा होती है...मैं कहुंगा कि मकसद और सपना में फर्क है....और कोई मामूली फर्क नहीं है...सपना मेरा हो सकता है कि मैं ऑफिस मारूती इस्टीम में जाऊं....लेकिन मेरा मकसद ये नहीं है कि मेरे पास ढ़ेर सारा पैसा और महंगी गाड़ी हो....सपना हो सकता है कि मेट्रो सिटी में एक शानदार मकान हो...लेकिन मकसद ये नहीं है...मकसद तो गांव में एक छोटे से घर में रहने की है...जहां खिड़की से ताजा हवा का झोंका हर रोज चेहरे से आकर टकराये...जहां सूरज की पहली किरण खिड़की के रास्ते मेरा माथा चूमे....अब सबसे अहम सवाल कि जब मुझे मेरा मकसद पता है तो देश की राजधानी में क्या कर रहा हूं...तो इसका जवाब मेरे पास है....यहां मीडिया के अलग-अलग ट्रेंड और नये रूप से दो चार हो रहा हूं.....क्योंकि आने वाले दिनों में रिजनल मीडिया का बोलबाला होगा....आज जो खबरें धड़ल्ले से बिकती हैं...उसकी टीआरपी कम होने वाली है....और जो वास्तव में खबर होती है...जिसका नाता मास से होता है...वैसी खबरें ही दिखायी सुनाई और छपी होंगी.....ऐसे में मेरा मकसद दूर गांव में रहकर पत्रकारिय जीवन का निर्वाह करना है..तो क्या ये गलत है ?
Tuesday, August 24, 2010
ये हमारे देश में क्या हो रहा है ?
आज आम गरीब लोगों की जान इतनी सस्ती हो गई है...कि सैकड़ों लोगों की मौत की चीख तबतक सुनाई नहीं पड़ती...जबतक पूरे देश में सरकार की थू थू नहीं होने लगे...बंगलौर शिविर में भी तो यही हो रहा है...लोग बदहाली में जान दे रहे हैं लेकिन सरकार इसे सामान्य मौत बता कर कन्नी काट रही है.....ऐसे में अगर कोई आदमी तंग आकर हथियार उठा लेता है...तो हम एक साथ उसे गलत करार दे देते हैं...मैं भी उसे पूरी तरह सही नहीं मानता...लेकिन उसके मन में घर कर रहे असंतोष को समझने की जरूरत है...क्योंकि ये असंतोष देश के करोड़ो मन में बारूद का रूप ले रहा है...
Monday, August 9, 2010
सवाल देश की इज्जत का
यानी लगभग 50 दिन और बच रहे हैं....शहर के हालात देख कर ऐसा लगता है....जैसा सारा काम एक दिन में पूरा कर लिया जाएगा...यानी समय कम है और काम ज्यादा...
काम ज्यादा होने से और इसे समय पर पूरा करने के दबाव में पुख्ते काम की गारंटी
नहीं दी जा सकती....ऐसे में एक और कहावत याद आ रहा है....”हड़बड़ी के बिआह कनपटी में सेनूर”....मुख्यमंत्री का अल्टीमेटम मिल चुका है कि एक सितम्बर से पहले काम खत्म कर देना है...ऐसे में निर्माण कार्य में लगे कंपनियों ने रफ्तार तेज कर दी है
हो भी क्यों ना सवाल देश की इज्जत का जो है
इसकी वजह से जो काम 100 रूपये में होने वाला था...उसे 200 रूपये देकर पुरा किया
जाएगा...ये पैसा आएगा आपकी औऱ हमारी जेब से.....क्योंकि “हम आम आदमी के जेब में ही तो देश का सारा पैसा पड़ा है”...सरकार जब चाहती है निकाल लेती है...अलग-अलग तरीक से.....
Monday, August 2, 2010
कल का अच्छा आज है बुरा !
क्या लोग इसे पीने के बाद खुद को हाई क्लास नहीं मानते ? यानी शराब पीना अब गलत काम नहीं रहा..क्योंकि आज ये सिर्फ शहरों तक सीमित नहीं है...ये छोटे शहरों कस्बों से निकल कर सूदूर गांव तक पहुंच गया है...अब तो गांव में भी जो लोग बीयर नहीं पीते उसे पिछड़ा और पुराने ख्यालात वाला समझा जाता है...
लगभग यही हाल लड़कियों के मामले में भी फिट बैठता है...जिसके पास कोई गर्लफ्रेंड नहीं है उसे असफल और बेवकूफ समझना आम बात हो गयी है॥ हैरान तो लोग उस पर भी है जो सिर्फ एक लड़की के साथ है...और उसके सिवा किसी के बारे में सोचता भी नहीं है....
ये बात यहीं खत्म नहीं होती...मां बाप की आज्ञा मानने वाला, टीचर को इज्जत देने वाला, दोस्तों की मदद करने वाला आदमी.... आज की नयी परिभाषा में अच्छा आदमी नहीं है...साफ शब्दों में कहें तो आज जो बाहरी तौर से स्मार्ट दिखे, जो जिंदगी में कपड़ों की तरह लड़कियां बदलता हो...देर रात बार में पार्टी करता हो औऱ जो रिश्तों को मजबूरी समझता हो, वही अच्छा आदमी है...
Sunday, August 1, 2010
ये दुर्घटना ही थी....
दफ्तर से निकला तो बारिश शुरू हो गई...लेकिन अच्छा हुआ कि हमारे एक सीनियर जो मेरे साथ ही नाइट शिफ्ट में नौकरी करते हैं...ने हमें अपनी कार में चलने का ऑफर दे दिया.....कार में हम कुल मिलाकर पांच लोग थे..तीन तो हम यानी मैं विकास और रणविजय..और दो हमारे सीनियर...कार में कुछ दूर चलने के बाद सिचुएशन ऐसी बनी की रणविजय ने हम सभी को पार्टी देने का ऑफर दे दिया....बाहर बारिश और तेज हो चली थी..हम रिंगरोड से मेडिकल की ओर बढ़ रहे थे...कार की ब्रेक जहां लगी...मेकडोनाल्ड का पीला वाला स्टायलिश M दिखाई दिया...मैं भी विकास और रणविजय के साथ अंदर दाखिल हो गया...काउंटर पर पहुंचते ही एक सुन्दरी ने मुस्कुराकर हमलोगों का स्वागत किया..लेकिन वो बिल्कुल प्रोफेशनल था.. इसलिए ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं थी...विकास ने बर्गर ऑर्डर किया...और कोलड्रिंक भी...बर्गर की कीमत सुनकर ही कोलड्रिंक की प्यास मिट गई....पैसे मेरे जेब से भले ना गये हों...लेकिन मन जरूर भारी हो रहा था...मैं अपराध बोध महसूस करने लगा...खुद को कोसने भी लगा कि क्यों आ धमका... वैसी जगह जो मेरी लिए नहीं थी..हमें यकीन नहीं हो रहा था कि हम उसी देश में थे जहां की 77 फीसदी आबादी रोजाना 20 रूपया से कम पर गुजारा करती है..मैकडोनाल्ड से निकलने के बाद बर्गर के स्वाद ने जरूर मन की करवाहट को थोड़ा दूर किया...लेकिन अगर लंबे समय तक इस दुर्घटना को याद रखूंगा तो सिर्फ 85 रूपये के बर्गर के लिए.....
Friday, July 2, 2010
मासूम मासूमियत भरी
Wednesday, June 30, 2010
मजबुरी...
Thursday, May 20, 2010
दिल्ली में हम पांच..बनने आये पत्रकार..
उस दौरान क्लास का वो दूसरा तीसरा दिन ही था.....जब रूबी से हमारी मुलाकात हुई थी....उस में भी कुछ बात थी जो असरदार थी......वो मुझे नेचुरल भी लगी और बनावटी भी.....नेचुरल लगी क्योंकि दिल्ली जैसे शहर में रहकर भी गांव की मिट्टी से उसका नाता नहीं टूटा था.....मुझे उसकी एक बात बहुत अच्छी लगी थी...एक बार उसने कहा था कि " गांव से चलते समय गांव की उन टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों,खेत खलिहानों और गांव की बदहाल सड़कों से मैंने वादा किया है कि एक दिन तुमसब की हालत को ठीक करने मैं गांव लौटूंगी " बनावटी इसलिए कि जहां वह कमजोर थी.....उसे भी अपनी जिद और व्यक्तित्व से ढ़कना चाहती थी....जो बात कई लोगों को बुरी लगती थी.....
क्लास में कुछ दिन और बीते होंगे कि एक और मित्र(गजेन्द्र) से हमारी मुलाकात हुई....उसे देखकर किसी को भी उसके भीतरी पीड़ा का अंदाजा नहीं लग सकता था....चेहरे पर आत्मविश्वास साफ झलक रहा था....उसके व्यक्तित्व में अपने प्रदेश की संस्कृति उसे दूसरे से बेहतर और जीवंत बनाये हुए थे....उसमें एक आग दिखी थी जो वर्षों से धधक रही थी.....तब से कई बार मुसलाधार बारिश हुई लेकिन उस आग के सामने नतमस्तक होकर चली गयी.....वो आग उसमें आज भी है लेकिन उसकी तपिश थोड़ी कम पड़ गयी है.....या हो सकता है किसी गरम हवा का इंतजार हो जो उस लौ को फिर से एक दिशा दे सके......हमारी मित्रमंडली में एक नाम ऐसा है जिसका जिक्र किये बीना कहानी पूरी नहीं हो सकती है....उसका नाम है मंजू जो इतनी नेकदिल, गंभीर अपनी जिम्मेदारियों को समझने वाली थी कि कोई भी उससे नफरत नहीं कर सकता था... उसकी आंखे बहुत ही शांत और गहरी थी ....जिसमें छुपे दर्द को समझना किसी के बस मे नहीं था....उसकी जिन्दगी इतनी संघर्षशील और त्यागवाली थी कि कोई भी उसे अपने जीवन का आदर्श बना सकता है.....उसे अपने खुद के जीवन से कोई मोह नहीं था....वो अपनी बहन-भाईयों के लिए जी रही थी....वो एक लड़ाई लड़ रही थी...लगातार लड़ रही थी...परिवार से, समाज से, कानून से, रूढ़ीवादी परम्पराओं से और काफी हद तक अपनेआप से.....उसे लड़ाई का परिणाम नहीं मालूम था...फिर भी वो लड़ रही थी....उसकी लड़ाई आज भी जारी है....और शायद जीवनभर जारी रहने वाला है....लेकिन इस लड़ाई में वो अकेली थी....हमलोगों में से किसी ने भी उसकी लड़ाई में मोर्जा नहीं सम्भाला....लेकिन उसे हमेशा उम्मीद थी कि जब हम लोग पत्रकार बन जायेंगे तो उसकी मदद कर पायेंगे.....
मेरे बारे में जिक्र करने लायक कुछ विशेष था नहीं.....मैं एक साधारण शरीर और दिमाग वाला संवेदनशील लड़का था....उस मित्रमंडली में मैं सबसे ज्यादा प्यार पाता था....बिल्कुल उस बच्चे की तरह जो थोड़ा मंदबुद्धि का होता है....मुझमें ना वो आग थी ना चिंगारी....तब तो मैं पत्रकारिता को ठीक से जानता भी नहीं था...मुझे मेरे मित्रों से बहुत कुछ सीखने को मिला...और आज भी मिल रहा है....उनका साथ पाकर अब मैं भी थोड़ा थोड़ा पत्रकारिता को जानने लगा हूं..........-- Akash Kumar
Monday, May 17, 2010
हवाई हमला से पहले विचार
ताजा स्थिति ये है कि नक्सलियों ने दंत्तेवाड़ा और बीजापुर में हमला कर सरकार को हिला दिया है.....अब सरकार नक्सलियों के खिलाफ एयरफोर्स को लगाना चाहती है.....अगर ऐसा हुआ तो नक्सलियों का नामोनिशान मिट जाएगा......सरकार की इस कार्रवाई से उन्हें अबुझमाड़ का जंगल भी नहीं बचा पाएगा .....लेकिन इसकी पूरी सम्भावना है कि काफी संख्या में निर्दोष लोग मारे जाएंगे ......दूसरी बात है कि जिस जंगल को आदिवासी अपना घर और मंदिर समझते हैं उसका पूरी तरह सफाया हो जाएगा......इस आरपार की लड़ाई में असल मुद्दा फिर दब जाएगा .....सरकार के प्रति कुछ लोगों में फिर निराशा बढ़ेगी और वे हथियार उठायेंगे.......ये जरूर है कि थोड़े समय के लिए माहौल शांत तो हो जाएगा लेकिन लोगों के भीतर एक आग सुलगती रहेगी........ . ये सुलगती आग फिर से ज्वालामुखी ना बने इस पक्ष पर भी विचार करने की जरूरत है......
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Akash Kumar
Monday, May 3, 2010
हम कैसा समाज बना रहे हैं..
Friday, March 12, 2010
भारतरत्न के लिए सचिन बड़ा नाम
Wednesday, March 3, 2010
जेएनयू की हुड़दंग वाली होली

कुछ चीजें होती है जिन पर यकीन करने का मन नहीं करता लेकिन करना पड़ता है। होली वाले दिन जेएनयू कैम्पस का भी नजारा कुछ ऐसा ही था जिस पर भी आसानी से भरोसा नहीं हुआ। लेकिन ये खयाल आया कि जब होली का मौसम हो तो कुछ भी सम्भव हो सकता है। मस्ती में डूबे युवक-युवतियों ने जो धमाल किया उसकी कोई तुलना नहीं हो सकती थी। रंग बरसे भीगे चुनरवाली रंग बरसे और हाय ये होली उफ ये होली जैसे गीतों पर थिरकते लोगों को कैमरे में कैद करने का मौका कोई भी चुकना नहीं चाहता था। लाल पीले काले नीले रंगों से सराबोर छात्रों को देख कर कोई भी नहीं कह सकता था कि ये जेएनयू के वही छात्र है जो भारतीय राजनीति अंतरराष्ट्रीय संबंध और समाजवाद पर लंबे लंबे भाषण देते हैं रंग-बिरंगे गेटअप में झुमते नाचते लड़के-लड़कियों में अंतर करना मुशिकल था। किसी ने कुर्तो भाड़ रखे थे तो कोई उन फटे कपड़ों का डिजायन बनाये। कोई भांग पी रहा था तो किसी ने रम पी रखी थी। किसी के हाथ पिचकारी थी तो किसी के हाथ गुलाल की पोटली। यहां पढ़ाई कर रहे विदेशी छात्रों के लिए यह अद्भूत नजारा होता है। इस उमंग और मेल-मिलाप के त्योहार का कोई भी मौका चुकनी नहीं चाहते। हमेशा दूर से ही पहचाने जाने वाले इन छात्रों को पहचानना मुश्किल था। सभी आज भारतीय रंग में घुल गये थे। मस्ती के इस अनूठे अवसर को वे लगातार कैमरे में सहेजते रहे। होली के मशहुर गीतों पर झुमते इन युवाओं को रोकना किसी के वश में नहीं था। सारे झीझक और सभी बंदिशे तोड़कर वे दिखा देना चाहते थे कि भारत को यूं ही युवाओं का देश नहीं कहा जाता। यहां छात्रों में जो उर्जा लाजवाब थी। भविष्य की सारी चिंताये भूलाकर आज सिर्फ नाचना थिरकना चाहते थे। ऐसा भी नहीं था कि इन छात्रों में मस्ती के आलम में सारी मर्यादाएं तोड़ दी हो। उनको नशे में भी अपने हद में थे। नफरत कटुता और इस तरह की सारी शिकायतों को भूलाकर लोग एक दूसरे के गले के गले मिल रहे थे। मन के अवसादों को भूलाकर उनका चेहरा चमक रहा था। होली की ऐसी सुन्दरता को जेएनयू के ही छात्र बनाये रख सकते थे जिन पर देश की कई उम्मीदें जुड़ी होती है।
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Thursday, January 28, 2010
कैसे सफल होगी हरित क्रांति
देश में खाद्यान्न संकट के कारण महंगाई की स्थिति बेकाबू हो रही है। सिर्फ अनाज ही नहीं दाल, सब्जी, चीनी सभी की कीमतें आसमान छू रही हैं। ऐसे में कृषि मंत्रालय अनाज की जगह फूल के उत्पादन पर जोर दे रहा है। जिस देश में आधी आबादी गांव में रहती है जहां खेती प्रमुख व्यवसाय है, जहां 37 फीसदी लोग गरीब हैं, भूख से जहां लोगों की जान जाती है। उस देश में सिर्फ फूलों की खेती कुछ हजम नहीं होती। हमारे देश में गेंहू, चावल और चीनी की अच्छी पैदावार होती है। इसे झांकी में दिखाये जाने की जरूरत थी। जिससे इसे बेहतर बनाने की कोशिश हो सके । राष्ट्रपति के बयान और कृषि मंत्रालय के झांकी में विरोधाभास है। ऐसे में हरित क्रांति कैसे सफल होगी इस पर देश को सोचने की जरूरत है।
Wednesday, January 20, 2010
आगरे का सफर सुहाना भी,यादगार भी
साल 2009 का आखिरी दिन। दोस्तों में बहस हुई कहां जाए,क्या करें,कैसे नये साल का स्वागत करें। काफी सोच-विचार के बाद आगरा जाने का कार्यक्रम बना। मैं मुनिरका और मेरे दोस्त बदरपुर से सराय काले खां पहुच गये। वहां उत्तरप्रदेश परिवहन निगम की एक बस हमारा इंतजार कर रही थी। बस की स्थिति देखकर सफर का आभास हो गया। कंडक्टर ने कहा बस ननस्टॉप है। थोड़ी देर में हम बस में सवार हो गये।
दिल्ली से निकलने में ही बस को घंटों लग गये। फिर बीच-बीच में सवारियों का आना जाना जारी रहा। किसी तरह पलवल के पास देह-हाथ सीधा करने का मौका मिला। कुरकुरे और चना-मसाला खाकर कुछ नहीं हुआ तो पराठा खाने का विचार आया।
बस वहां से चल पड़ी। हमलोगों ने बस में ही खाना शुरू किया। संतोष ने कहा-कितने का पराठा है। पराठा की कीमत सुनते ही सभी एक-दूसरे को देखने लगे। दाम सुनकर ही पेट भर गया। 15 रूपये का एक पराठा खाने के बाद रास्ते में कुछ और खाने की हिम्मत नहीं हुई। लेकिन 3 बजते-बजते सब्र टूट गया। बस के ट्रांसपोर्ट नगर पहुंचते ही एक महाशय आ धमके। उनके प्रस्ताव लुभावने लगे। उन्होंने 500 रूपये में आगरा घुमाने का ऑफर दिया। थोड़ी खींचतान के बाद 400 रूपये पर सहमति बनी। नया शहर, अजनवी लोग कम समय होने से उस महाशय के प्रस्ताव हमने मान लिये। खाने की बात पर फिर बहस हुई। एक रेस्टोरेंट के सामने ऑटो रूकी। रेस्टोरेंट का इनटीरियर देख ठगे जाने का अनुमान हो गया। वहां लगे शीशे में अपनेआप को देखकर हमलोगों ने चेहरे पर मुस्कान लाने की कोशिश की। एक अंकल जैसे वेटर ने प्रेम से मेन्यू पेश किये। आंखे व्यंजन के नाम की जगह उसके कीमत पर ऊपर-नीचे होने लगे।
यहां दोस्तों में बहस नहीं हुई। इशारों-इशारों में मेरी पसंद पर सबने मुहर लगा दी। साठ रूपये की दाल और अस्सी रुपये की सब्जी से किसको आपत्ति हो सकती थी। असल में इससे कम का कुछ था ही नहीं। सकुचाते-सकुचाते हमने बीस रोटियां खा ली। 5 रूपये की तंदूरी रोटी से पहली बार वास्ता पड़ा था।मन में बील का कलकुलेशन भी चल रहा था। डर भी था कि सलाद का दाम भी न जोड़ लिया जाए। ऊपर से वेटर की सेवा भावना के कारण दस रूपये भी देने पड़े।
लालकिला में टिकट की लंबी लाइन देखकर अंदर जाने का विचार त्याग दिये। वहां से हमलोग आगरा के लिए गये। रास्ते में ऑटो वाले ने हमें खैराती मुहल्ला दिखाया। यहां मुगल बादशाह शाहजहां खैराती का आयोजन करता थे। ताजमहल के पूर्वी गेट से हमलोगों ने प्रवेश किया। इस बीच ताज की हर खुबसुरती को कैमरे में सहेजने का काम जारी था। नोकिया 2700 मोबाइल ने भरपूर साथ दिया। देश के अलग-अलग प्रांत से आये लोगों और विदेशी सैलानियों को एक साथ देखना बहुत अच्छा लग रहा था।
शाम हो रही थी। अंधेरा घिर चला था,लेकिन ताज की खूबसूरती और इसकी चमक अदभूत था। संगमरमर के पत्थरों से छिटक रहे प्रकाश को देखना मनोनम था। नव वर्ष की इस संध्या का नजारा वहां आये प्रेमी-युगल के लिए बेहद खास होगा। मन में हजार तरह के सपने संजोये प्रेमी अपनी प्रेमिका में मुमताज महल को देखते हैं। एक-दूसरे के गले में बाहें डाले ये प्रेमी-युगल साथ रहने के कई सारे वादे करते हैं। ताज की बनावट और उसके लोकेशन को देखकर मन गदगद कर रहा था। मानो संगमरमर की सफेदी और चमक चांद का मुहं चिढ़ा रहे हो।
वापसी में एक यादगार लम्हा हमारा इंतजार कर रहा था। अंधेरा पूरी तरह घिर चुका था। शाम के 6 बजे का वक्त था। सीढ़ीयों से उतरने के बाद हमने पाया कि हमारे दो जोड़ी जूतें गायब थे। इधर-उधर तालाशी अभियान शुरू हो गया। खाली पैर लौटने से गलत नंबर के जूते में ही लौटना पड़ा। अमित और हेमंत दोनों जूते खोने के बाद एक-दूसरे पर दोष मढ़ रहे थे। दोनों में बहस लगातार तेज हो रही थी। उदास मन से हमलोग फिर से उत्तरप्रदेश परिवहन निगम की बस में आ धमके। संतोष ने माहौल को हल्का बनने के लिए अपन नोकिया एन-72 मोबाइल पर गाना प्ले कर दिया। थोड़ी देर में माहौल शांत और वापसी का सफर शुरू हो गया।