हीरालाल गुप्ता उर्फ साधु जी कुरता-पैजामा और पंडित नेहरू वाली टोपी में वे स्वतंत्रता आन्दोलन के सच्चे सिपाही लगते हैं। अपनी ज़िन्दगी के अस्सी साल अपने बच्चों का भविष्य बनाने में झोक चुके साधु जी हर सुबह साइकिल उठाकर पेपर बेचने निकल जाते हैं। चेहरे पर झुर्रियों और पिचके गाल को देखकर उनकी कार्यक्षमता को समझना मुश्किल है। बुढी हो चुकी उनकी आंखें आज भी सपने देखती है ।एक बेहतर समाज बनाने का प्रयास उनके काम और उनके दैनिक जीवन में दिखता है।
मैं सीधु जी को पिछले दस सालों से जानता हूं।तब मैं स्कूल की पढाई पूरी कर रहा था। तब वे रोज सुबह गली-गली घूमकर लोगों को जगाने का प्रयास किया करते थे। वे कहा करते थे –रोज अपने माँ-बाप के चरण छुओ, किताब तुम्हारा सबसे अच्छा मित्र है हमेशा किताब के साथ रहो....। उनकी बातों को तब हमें विनेदी लगती थी। कभी कभी हम दोस्तों के बीच वे हंसी का पात्र बनते थे। वे अक्सर कहा करते थे कि बेटा-बेटी में कोई अंतर नही है। बेटियों को भी पढ़ने लिखने का हक है। परिवार में भाभी का दर्जा मां जैसी होना चाहिए। उनकी बातें मुझे आज सार्थक लगती है। आज जिस प्रकार युवाओं में अपने माता-पिता, दादा-दादी और गुरूजन के प्रति सम्मान कम हो रहा है, वह चिन्ता का विषय है। एक बेहतर जीवन और समाज बनाने में उनकी एक एक बातें मुझे अब मुल्यवान लगती है । साधु जी आजकल दिल्ली के बुराड़ी में रह रहे हैं और अपने पोते पोतियों का संस्कार बनाने में कार्यशील हैं। उनके बच्चों को अच्छा नही लगता है कि वे इस उम्र में काम करे। लेकिन साधु जी के लिए आराम हराम है। अस्सी साल के साधु जी का जीवन किसी तपस्या से कम नही है।
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