Wednesday, November 18, 2009

हमारी क्लास के बुद्धिजीवी पत्रकार ?

हमारी क्लास के कुछ छात्र ऐसे हैं जो अपने आप को वरिष्ठ पत्रकार की श्रेणी में रखते हैं। इसे पूरी तरह खारिज भी नहीं किया जा सकता। उनलोगों में एक बड़ा पत्रकार बनने के कई सारे गुण है,लेकिन उस गुण को कैसे निखारा जाए ये कला उनको नहीं आती। ये छात्र अपने-आप में इतने मगन होते हैं कि बाकी छात्र-छात्राओं को वे मजाक का विषय समझते हैं।

समाज कल्याण, नारी स्वतंत्रता और आम आदमी की सदा दुहाई देने वाले ये पत्रकार क्लास में ही अपनी बात को झुठा साबित कर देते हैं। जब कोई लड़की क्लास में कुछ बोलना चाहती है, किसी बात का विरोध करना चाहती है तो इन बुद्धिजीवी पत्रकारों के सत्ता पर संकट मंडराने लगता है। मैं इसे कमजोर मानसिकता का ही एक रूप मानता हूं। हमारे प्रधान सर कहते हैं कि सबको अपनी बात कहने का हक़ है। हमें सभी को सुनना चाहिए। किसी से हमारी असहमति हो सकती है इसके बावजूद उसे अपनी बात पूरी करने की आज़ादी है। लेकिन इन बातों का हमारी वरिष्ठ बिरादरी पर कोई असर नहीं होता।

क्लास में कुछ छात्र-छात्रा चुप रहते हैं। उनके चुप रहने का कारण उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि होती है। उनको बचपन से कुछ कहने कुछ बोलने से रोका जाता है। ऐसे छात्रों को क्लास में सहयोग, समर्थन और प्रोत्साहन की ज़रूरत होती है। उन्हे उम्मीद होती है कि क्लास में दोस्ताना माहौल मिलेगा, लेकिन यहां तो गुटबाजी शुरू हो जाती है।

4 comments:

  1. तो आप क्या चाहते हैं, क्या किया जाना चाहिए? हां निश्चित तौर पर कुछ ऐसे तत्व हैं क्लास में जो खुद को तीस मार खां समझते हैं। लेकिन उनका यही रवैया उन्हें काटता रहेगा। मेरी उनसे सहानुभूति है कि वे खुद को पहचान नहीं पा रहे हैं।

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  2. आपका कहना सौ फीसदी सही है इन लोगों के कारण पुरी क्लास परेशान है।
    इनको भ्रम से निकलकर वास्तविकता को पहचानना चाहिए
    यही इनके और क्लास के दोनो के लिए हितकर है।

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  3. आकाश,
    अभी इस कक्षा में बैठकर कुछ भी सही-सही टिप्पणी करना किसी भी छात्र के लिए संभव नहीं हो सकता है। आवेश, पूर्वाग्रह, बौखलाहट, दंभ, नकटापन और अस्पष्टता इन दिनों पूरी तरह हावी रहेगी।

    अगर कहूं तो आईआईएमसी इन नौ महीनों के लिए बिग बॉस का घर बन जाती है। जो आपको पढ़ाने या आपसे बातचीत करने आता है, आप उस पर चढ़ाई ही कर देते हैं। और ऐसा भी नहीं है कि आप पूरे तर्कों के साथ और सही होकर ऐसा करते हैं। दरअसल आपको लगता है कि भारतीय जनसंचार संस्थान से निकलते ही देश के शीर्ष अखबारों के संपादकीय पन्ने आपका इंतजार कर रहे हैं। आपको करना खाली यह है कि महीने की तनख्वाह उठाइए, सभी प्रमुख मैगजीन-अखबार पढि़ए और जो भी आप सोचते हैं, लिख-बोल डालिए। उससे नीतियां बनेगी। सरकारें गिरेंगी। आपको सड़़कों पर चप्पलें नहीं घिसनी होंगी। ऐसी ही कई बातें।

    और एयर कंडीशनर लगी इन चमकदार कक्षाओं में बैठे रहना, उस पर भी दुुनियाभर में नाम कमाने और हिला देने वाले बड़े-बड़े पत्रकार, विचारक और मीडियाकर्मी आपके सामने आकर बैठते हैं। आपको विशेष होने का एहसास दिलाते हैं। आप उसकी गिरेबान को जल्दी से जल्दी पकडऩा चाहते हैं। कक्षा के सभी छात्रों से पहले सबसे तीखा सवाल दागना चाहते हैं। असुरक्षा भी है कि भला ये लोग आए तो आए पर स्पेशल ट्रीटमेंट तो सभी को मिल रहा है। और वह भला क्यों? तो कक्षा की सारी फुटेज ले डालो। चाहे कैसे भी लो... बस ले लो।

    आईआईएमसी में आते ही पहले दिन कह दिया गया था न कि निडर हो जाओ। किसी से भी कुछ भी पूछने से पीछे मत हटो। और ओरिएनटेशन भी तो हुआ था। वहां के आलीशान ऑडीटोरियम की रंगीन गद्देदार कुर्सियां और बड़े से बड़े चेहरे और कद और .... आप। तो इस आवरण से एक अलग ही फीलींग होती है। बड़ा और विशेष होने की भावना।

    दिक्कत यह है कि इस भावना से कोई दिक्कत नहींं है। वह सिर्फ उस शर्त पर कि संस्थान से बाहर निकलने के बाद आप रोना-धोना और मीडिया समेत स्थिति को कोसना मत शुरू कर देना। हो सकता है कक्षा मेंं बैठकर आपने जिस अतिथि संकाय को बेइज्जत और परेशान किया हो वही आपको अयोग्य घोषित कर दे। क्योंकि यहां तो आपके अध्यापक उनसे आपका परिचय करवाते हैं, उनसे वक्त लेते हैं, उन्हें आमत्रित करते हैं...। मगर नौ महीने बाद और संस्थान के बाहर का अपॉइंटमेंट आपको खुद ही लेना होगा। तब उस बेइज्जत किए गए आदमी के कद का अंदाजा आपको होने लगेगा। तब आपको अपने कद का अंदाजा होने लगेगा।

    उस वक्त अपनी कुव्वत दिखाएं। बिना नौकरी के जीएं। सभी के सामने वैसे ही उदाहरण पेश करें, जैसे आप कक्षा में उछल-उछल कर और दूसरे कमजोर छात्रों की बोली पर अतिक्रमण करके किया करते थे।

    खैर यह एक खेल ही तो है। नौ महीने खत्म होने के बाद जिसने वास्तविक होकर वक्त बिताया होगा, वह असहज नहीं होगा, मगर जो हवा में रहा होगा वह लटका ही रह जाएगा।

    सभी छात्र-छात्राएं विशेष कर सकते हैं। बस उनके व्यक्तित्व में एक ठहराव की जरूरत है। वह ठहराव और गहराई अनिल चमडिय़ा जी दे सकते थे, पर समय की लीला की वह यहां नहींं है।

    खैर सभी को शुभकामनाएं...

    तुम्हारा..
    गजेन्द्र सिंह भाटी

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