भुवन इन दिनों एक कमरे में बंद किताबें खंगाल रहे हैं। आंखों में लालबत्ती का सपना लिए इनकी दुनिया मुखर्जी नगर में आकर सिमट गई है। भारतीय जनसंचार संस्थान से निकलने के बाद भुवन ने कुछ महीने मीडिया में बिताए। अब इनका मानना है कि पत्रकारिता करियर के रूप में एक अच्छा विकल्प नहीं है। ये आईआईएमसी के हिन्दी पत्रकारिता के छात्र हैं । भुवन के दोस्त कन्हैया भी मीडिया छोड़कर सिविल सेवा की तैयारी में लगे हैं। बिजनेस स्टैन्डर्ड में कुछ महीने बिताने के बाद इन्होंने भी मीडिया को बाय-बाय कह दिया। इनका कहना है कि सिविल सेवा मेरी प्राथमिकता है। अगर मीडिया में लौटा तो शिक्षण कार्य में करियर की तलाश करूंगा।
इसी बैच की मीनाक्षी के विचार इन दोनों से अलग हैं। इनका मानना है कि पत्रकारिता में आने के बाद अपनी निजी जिन्दगी को भूल जाना होता है। यह दूसरे पेशों से ज्यादा चुनौतीपूण और रोमांचक है। इसमें हमेशा सगज रहने की जरूरत होती है। अगर ईमानदारी से मेहनत की जाए तो बहुत अच्छा करियर विकल्प है जिसमें नाम, शोहरत और पैसा तीनों हैं।
मीडिया को अलविदा कहने वालों में रजनीश प्रताप सिंह भी हैं जो रेडियो टीवी के छात्र हैं। शुरूआती नौकरी ‘आज तक’ जैसे बड़े संस्थान में करने के बाद भी इनको वहां करियर दिखाई नहीं पड़ा। आज ये प्रशासनिक सेवा का हिस्सा बनना चाहते हैं। संस्थान के कुछ छात्रों का मानना है कि टेलीविजन में काम करना स्टेनो टाइपिस्ट का काम करना हो गया है। वहीं समाचार पत्र का काम सिर्फ अनुवाद तक सिमट कर रह गया है।
ऐसे छात्रों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है जिनका संस्थान से निकलने के बाद मीडिया से मोहभंग हो जाता है। यह चिन्ता का विषय है। बड़ा सवाल है कि सरकार यहां प्रत्येक छात्र पर सलाना लगभग चार लाख रूपये खर्च करती है। उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को मजबूत करने में अपनी भूमिका अदा करेंगे।
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मीडिया का बंटाधार हो चुका है....इनलोगों को बहुत जल्द अक्ल आ गई है...
ReplyDeleteये सब वो लोग हैं जिनकी प्राथमिकता कभी पत्रकारिता थी ही नहीं। ये वो लोग हैं जो थक-हार कर मीडिया में घुसना चाहते हैं। जब सिविल सेवा में कामयाबी नहीं मिलेगी तो फिर से मीडिया में घुसने की कोशिश करेंगे। और हां, जो खुद मीडिया से दूर भाग गए, जिनके पास अखबार, टीवी में काम करने का अनुभव नहीं होगा वो मीडिया के छात्रों को क्या पढ़ाएंगे यह अच्छी तरह समझा जा सकता है। दरअसल ये वो लोग हैं जो सरकारी नौकरी और बैठे-बैठे सुविधाएं पाने के आदी हो चुके हैं। दूसरों पर हुक्म चलाना और खुद को बेहतर समझना इनके संस्कारों में है। अखबार और मीडिया में शुरुआत अफसरशाही से नहीं बल्कि नौकर की तरह होती है। यह इन पढ़े लिखे खुद को बुद्धिजीवी समझने वाले लोगों से कैसे बर्दाश्त हो सकता है। ये तो सोचकर आए थे कि मोटा पैसा मिलेगा, शोहरत मिलेगी। लेकिन इस सबके लिए संघर्ष करना पड़ता है। जबकि एक बार सरकारी सर्विस में दांव लग गया तो काम करो या न करो पैसा तो मिलेगा ही, ऊपरी आमदनी भी करेंगे। अगर इस पोस्ट के पात्र काल्पनिक नहीं हैं तो मीनाक्षी ही प्रशंसा की हकदार हैं जिन्होंने इस संघर्ष को कबूलकर अपनी राह बनाने का फैसला किया है।
ReplyDeleteऊपर किया गया कमेंट मेरा है। किसी तकनीकी गड़बडी की वजह से मेरा प्रोफाइल शो नही कर रहा। इसलिए मैं अपना प्रोफाइल कनेक्ट कर रहा हूं ताकि लोग ये न समझे कि ये किसी अनाम ब्लॉगर का कमेंट है। जो मेरे नजरिये से असहमत हैं उनका भी शुक्रिया
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