Wednesday, January 20, 2010

आगरे का सफर सुहाना भी,यादगार भी

31 दिसम्बर
साल 2009 का आखिरी दिन। दोस्तों में बहस हुई कहां जाए,क्या करें,कैसे नये साल का स्वागत करें। काफी सोच-विचार के बाद आगरा जाने का कार्यक्रम बना। मैं मुनिरका और मेरे दोस्त बदरपुर से सराय काले खां पहुच गये। वहां उत्तरप्रदेश परिवहन निगम की एक बस हमारा इंतजार कर रही थी। बस की स्थिति देखकर सफर का आभास हो गया। कंडक्टर ने कहा बस ननस्टॉप है। थोड़ी देर में हम बस में सवार हो गये।
दिल्ली से निकलने में ही बस को घंटों लग गये। फिर बीच-बीच में सवारियों का आना जाना जारी रहा। किसी तरह पलवल के पास देह-हाथ सीधा करने का मौका मिला। कुरकुरे और चना-मसाला खाकर कुछ नहीं हुआ तो पराठा खाने का विचार आया।
बस वहां से चल पड़ी। हमलोगों ने बस में ही खाना शुरू किया। संतोष ने कहा-कितने का पराठा है। पराठा की कीमत सुनते ही सभी एक-दूसरे को देखने लगे। दाम सुनकर ही पेट भर गया। 15 रूपये का एक पराठा खाने के बाद रास्ते में कुछ और खाने की हिम्मत नहीं हुई। लेकिन 3 बजते-बजते सब्र टूट गया। बस के ट्रांसपोर्ट नगर पहुंचते ही एक महाशय आ धमके। उनके प्रस्ताव लुभावने लगे। उन्होंने 500 रूपये में आगरा घुमाने का ऑफर दिया। थोड़ी खींचतान के बाद 400 रूपये पर सहमति बनी। नया शहर, अजनवी लोग कम समय होने से उस महाशय के प्रस्ताव हमने मान लिये। खाने की बात पर फिर बहस हुई। एक रेस्टोरेंट के सामने ऑटो रूकी। रेस्टोरेंट का इनटीरियर देख ठगे जाने का अनुमान हो गया। वहां लगे शीशे में अपनेआप को देखकर हमलोगों ने चेहरे पर मुस्कान लाने की कोशिश की। एक अंकल जैसे वेटर ने प्रेम से मेन्यू पेश किये। आंखे व्यंजन के नाम की जगह उसके कीमत पर ऊपर-नीचे होने लगे।
यहां दोस्तों में बहस नहीं हुई। इशारों-इशारों में मेरी पसंद पर सबने मुहर लगा दी। साठ रूपये की दाल और अस्सी रुपये की सब्जी से किसको आपत्ति हो सकती थी। असल में इससे कम का कुछ था ही नहीं। सकुचाते-सकुचाते हमने बीस रोटियां खा ली। 5 रूपये की तंदूरी रोटी से पहली बार वास्ता पड़ा था।मन में बील का कलकुलेशन भी चल रहा था। डर भी था कि सलाद का दाम भी न जोड़ लिया जाए। ऊपर से वेटर की सेवा भावना के कारण दस रूपये भी देने पड़े।
लालकिला में टिकट की लंबी लाइन देखकर अंदर जाने का विचार त्याग दिये। वहां से हमलोग आगरा के लिए गये। रास्ते में ऑटो वाले ने हमें खैराती मुहल्ला दिखाया। यहां मुगल बादशाह शाहजहां खैराती का आयोजन करता थे। ताजमहल के पूर्वी गेट से हमलोगों ने प्रवेश किया। इस बीच ताज की हर खुबसुरती को कैमरे में सहेजने का काम जारी था। नोकिया 2700 मोबाइल ने भरपूर साथ दिया। देश के अलग-अलग प्रांत से आये लोगों और विदेशी सैलानियों को एक साथ देखना बहुत अच्छा लग रहा था।

शाम हो रही थी। अंधेरा घिर चला था,लेकिन ताज की खूबसूरती और इसकी चमक अदभूत था। संगमरमर के पत्थरों से छिटक रहे प्रकाश को देखना मनोनम था। नव वर्ष की इस संध्या का नजारा वहां आये प्रेमी-युगल के लिए बेहद खास होगा। मन में हजार तरह के सपने संजोये प्रेमी अपनी प्रेमिका में मुमताज महल को देखते हैं। एक-दूसरे के गले में बाहें डाले ये प्रेमी-युगल साथ रहने के कई सारे वादे करते हैं। ताज की बनावट और उसके लोकेशन को देखकर मन गदगद कर रहा था। मानो संगमरमर की सफेदी और चमक चांद का मुहं चिढ़ा रहे हो।
वापसी में एक यादगार लम्हा हमारा इंतजार कर रहा था। अंधेरा पूरी तरह घिर चुका था। शाम के 6 बजे का वक्त था। सीढ़ीयों से उतरने के बाद हमने पाया कि हमारे दो जोड़ी जूतें गायब थे। इधर-उधर तालाशी अभियान शुरू हो गया। खाली पैर लौटने से गलत नंबर के जूते में ही लौटना पड़ा। अमित और हेमंत दोनों जूते खोने के बाद एक-दूसरे पर दोष मढ़ रहे थे। दोनों में बहस लगातार तेज हो रही थी। उदास मन से हमलोग फिर से उत्तरप्रदेश परिवहन निगम की बस में आ धमके। संतोष ने माहौल को हल्का बनने के लिए अपन नोकिया एन-72 मोबाइल पर गाना प्ले कर दिया। थोड़ी देर में माहौल शांत और वापसी का सफर शुरू हो गया।

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