Thursday, May 20, 2010

दिल्ली में हम पांच..बनने आये पत्रकार..

आईआईटी जियासराय के विद्या में क्लास का वो पहला दिन जब मैंने तुम्हे(हर्ष) देखा था.....तुम्हारे चेहरे पर एक तेज था जो शायद बाकी बच्चों में नहीं था....उस दिन तुम क्लास में टीवी के रियलिटी शो की धज्जियां उड़ा रहे थे....तुम्हारी बातों में वजन था...और वह काफी नेचुरल लग रहा था.....एक धार थी जो आजकल के कम ही पत्रकारों में देखी जा रही है...
उस दौरान क्लास का वो दूसरा तीसरा दिन ही था.....जब रूबी से हमारी मुलाकात हुई थी....उस में भी कुछ बात थी जो असरदार थी......वो मुझे नेचुरल भी लगी और बनावटी भी.....नेचुरल लगी क्योंकि दिल्ली जैसे शहर में रहकर भी गांव की मिट्टी से उसका नाता नहीं टूटा था.....मुझे उसकी एक बात बहुत अच्छी लगी थी...एक बार उसने कहा था कि " गांव से चलते समय गांव की उन टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों,खेत खलिहानों और गांव की बदहाल सड़कों से मैंने वादा किया है कि एक दिन तुमसब की हालत को ठीक करने मैं गांव लौटूंगी " बनावटी इसलिए कि जहां वह कमजोर थी.....उसे भी अपनी जिद और व्यक्तित्व से ढ़कना चाहती थी....जो बात कई लोगों को बुरी लगती थी.....
क्लास में कुछ दिन और बीते होंगे कि एक और मित्र(गजेन्द्र) से हमारी मुलाकात हुई....उसे देखकर किसी को भी उसके भीतरी पीड़ा का अंदाजा नहीं लग सकता था....चेहरे पर आत्मविश्वास साफ झलक रहा था....उसके व्यक्तित्व में अपने प्रदेश की संस्कृति उसे दूसरे से बेहतर और जीवंत बनाये हुए थे....उसमें एक आग दिखी थी जो वर्षों से धधक रही थी.....तब से कई बार मुसलाधार बारिश हुई लेकिन उस आग के सामने नतमस्तक होकर चली गयी.....वो आग उसमें आज भी है लेकिन उसकी तपिश थोड़ी कम पड़ गयी है.....या हो सकता है किसी गरम हवा का इंतजार हो जो उस लौ को फिर से एक दिशा दे सके......हमारी मित्रमंडली में एक नाम ऐसा है जिसका जिक्र किये बीना कहानी पूरी नहीं हो सकती है....उसका नाम है मंजू जो इतनी नेकदिल, गंभीर अपनी जिम्मेदारियों को समझने वाली थी कि कोई भी उससे नफरत नहीं कर सकता था... उसकी आंखे बहुत ही शांत और गहरी थी ....जिसमें छुपे दर्द को समझना किसी के बस मे नहीं था....उसकी जिन्दगी इतनी संघर्षशील और त्यागवाली थी कि कोई भी उसे अपने जीवन का आदर्श बना सकता है.....उसे अपने खुद के जीवन से कोई मोह नहीं था....वो अपनी बहन-भाईयों के लिए जी रही थी....वो एक लड़ाई लड़ रही थी...लगातार लड़ रही थी...परिवार से, समाज से, कानून से, रूढ़ीवादी परम्पराओं से और काफी हद तक अपनेआप से.....उसे लड़ाई का परिणाम नहीं मालूम था...फिर भी वो लड़ रही थी....उसकी लड़ाई आज भी जारी है....और शायद जीवनभर जारी रहने वाला है....लेकिन इस लड़ाई में वो अकेली थी....हमलोगों में से किसी ने भी उसकी लड़ाई में मोर्जा नहीं सम्भाला....लेकिन उसे हमेशा उम्मीद थी कि जब हम लोग पत्रकार बन जायेंगे तो उसकी मदद कर पायेंगे.....
मेरे बारे में जिक्र करने लायक कुछ विशेष था नहीं.....मैं एक साधारण शरीर और दिमाग वाला संवेदनशील लड़का था....उस मित्रमंडली में मैं सबसे ज्यादा प्यार पाता था....बिल्कुल उस बच्चे की तरह जो थोड़ा मंदबुद्धि का होता है....मुझमें ना वो आग थी ना चिंगारी....तब तो मैं पत्रकारिता को ठीक से जानता भी नहीं था...मुझे मेरे मित्रों से बहुत कुछ सीखने को मिला...और आज भी मिल रहा है....उनका साथ पाकर अब मैं भी थोड़ा थोड़ा पत्रकारिता को जानने लगा हूं..........-- Akash Kumar

1 comment:

  1. आकाश,
    लिखते रहो।
    लिखते रहो।
    यूं ही अपना विश्लेषण अन्य विषयों पर भी ले जाओ।
    विश्लेषण में और गहराई लाओ।
    लेखन का सुख पाओ।

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