Tuesday, September 22, 2009

मेरी मेनका

उन दिनों प्राइवेट स्कूलों में सांस्कृतिक कार्यक्रमों की खुब चर्चा होती थी।ऐसा अक्सर 15 अगस्त और 26 जनवरी को होता था।इसका उद्देश्य बच्चों में बहुमुखी प्रतिभा का विकास करना था।इसकी तैयारी महिना भर पहले से शुरू हो जाती थी।बच्चों के साथ साथ उनके माता पिता भी इसके हिस्सा होते थे।प्रतिभागी बच्चों के चेहरे की खुशी देखकर अभिभावकों का सीना चौड़ा हो जाता था।
मैं भी उस दिन ऐसे ही एक कार्यक्रम का हिस्सा था।श्री तपसी सिंह उच्च विधालय चिरान्द के खुले विशाल मैदान में इसका आयोजन हुआ।आसपास के लगभग सभी विधालयों ने इसमें भाग लिया।कार्यक्रमों में भारतीय संस्कृति की विविधता थी।एकल राष्ट्रगान भाषण समूह गान डांडिया डम्बल परेड झांकी जैसे रंगबिरंगे कार्यक्रमों की भरमार थी।मै अपनी बारी आने का इन्जार कर रहा था।राष्ट्रभक्ति की भावना के आगे सूरज की दोपहरी भी नतमस्तक था।एक उद्घघोषणा मेरे कानों में पड़ी और मैं एकाग्रचित हो गया ।दीपा साह कन्या मध्य विधालय का नाम पुकारा गया।प्रतिभागी मैदान में आ गये। सफेद शर्ट और लाल स्कर्ट में उस लड़की की सुन्दरता वहां मौजूद सभी दर्शकों का ध्यान खींच रही थी। शायद स्वर्ग की अप्सरा में मेनका का यही हाल होगा। साधना कट बालों और सायरा बानो वाली आंखों की पतली रेखायें उन रोमांटिक फिल्मों के सदाबहार दौर की याद दिला रही थी जब काँलेज के युवाओं का ज्यादातर समय शायरी और कविता लिखने में गुजरता था
मैं लगातार उसकी ओर देख रहा था।उसकी सादगी और सुन्दरता का मैं कायल हो गया।मुझे अपना उद्देश्य याद नही रहा।घड़ी के एक एक सेकेंड के साथ मेरी उत्सुकता बढ रही थी।अब वह परेड मार्च करते हुए मैदान के बीचों बीच आ गई थी। हाथ में तिरंगा थामें उसका और आत्मविश्नालस देखने लायक था।भारतीय सेना के जवान की तरह तन कर आगे आगे चल रही थी ऐसी सुन्दरता मैं पहली बार देख रहा था।तब सुन्दरता का मतलब मेरे लिए आज जैसा नही था।तब मैं कोमल ह्रदय और स्वच्छ मन का खुली किताब था।तब मुझे इसका जरा भी ज्ञान नही था कि लड़कियों किस किस अंग में सुन्दरता होती है।काश मैं आज भी वैसा ही होता।
मेरे खेल शिक्षक सुभाष यादव ने मुझे झकझोरा। मैं हड़बड़ा के उठ खड़ा हुआ।लेकिन कार्यक्रम पेश करने का उत्साह पहले जैसा नही था।मैंने अनमने ढंग से अपने गीत पेश किये। लोगों की तालियां बजी लेकिन उन तालियों का मेरे लिए कोई मतलब नहीं था। मेरी आंखें लगभग हजार दर्शकों की भीड़ में उसको ही तालाश रही थी। दर्शकों में उमंग था उत्साह था लोग खुशी से चिल्ला रहे थे। लेकिन वो सबकुछ मुझे चिढा रहे थे। सूरज की किरणें अब बांस की फुनगियों के बीच से आ रही थी दिन ढलने को था जल्दी जल्दी कार्यक्रमों को समेटने की कोशिश हो रही थी।
जब तक पुरा कार्यक्रम समाप्त होता वह जा चुकी थी। मैं उदास होकर घर आ गया।मुझे किसी काम में मन नही लगा । मां की डांट की वजह से खाना खाया, लेकिन रात को नींद नही आई। बार बार उस मेनका का चेहरा मेरी आंखों के सामने डांडिया कर रहा। बिस्तर पर करवट बदलना उस दिन नया लग रहा था।ऐसे में तकिया का साथ सुखकर लगता है।वही सबसे बड़ा साथी होता है।उसके कोमल एहसास और समर्पण में इतना अपनत्व होता है कि आदमी एक पल भी उससे दूर नही होना चाहता। मां ने आवाज लगाई। जल्दी जल्दी तैयार होकर नाश्ता किया। साढ़े नौ बज गये। स्कूल के लिए चला। आज कदमों में जो गति थी उसे कोई भी भांप सकता था उस दिन पढ़ने में बिल्कुल मन नही लग रहा था।बार बार घड़ी देख टिफिन होने का इंतजार कर रहा था। मन की आंखों उसका चेहरा बार बार घू्म रहा था।टिफिन की घंटी बजते ही बैग उठाकर सरपट दौड़ता हुआ मोती लाल गुप्ता की दुकान पर पहुंचा।वहां बच्चों के जरूरत का हर सामान बिकता था। मैंने एक इमली खरीदी और नमीता(मेरी मेनका) के आने का इंतजार करने लगा। मेरे साथ क्या हो रहा था मुझे पता नही लेकिन उसका अहसास बहुत प्यारा था। उस अहसास को मैं आज भी महसु्स करता हूं तो नमीता को अपने पास पाता हं।

2 comments:

  1. aapki namita ki khubsurti ko hmne bhi mehsus kiya.aapni is saafgoshi ko brkraar rkhiy.keep it up.

    ReplyDelete
  2. wakai aapaki Namita to mujhe jhakjhor diya or yah sochane par majbur kar diya itani kam umar me itani chahat par yah sochane par majbur kar raha hai aage kya hua, wah kahi gai or wah aapako samajh pai ya nahi

    ReplyDelete